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Sunday 5 May 2024

चेतना-स्पंदन

चेतना-स्पंदन 

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कुछ विचार-मनन, जतन -कष्ट करूँ, विचरकर स्वयं ही में, कुछ तो करूँ स्वोद्धार

मृदुल मन बनाने का कुछ यत्न करना होगा, बुराईयाँ जीवन से ही भगानी होगी दूर।

 

अपनी पहचान की कोशिश तो करो, फिर देखो कैसे स्वयं की अवमानना करते हो

क्या बलवान बनने हेतु विचार ही पर्याप्त है, परंतु वह प्रथम कदम अत्यावश्यक जो।

उसकी अहमियत कम ना आँकना, यदि चढ़ गए तो काफी नजदीक लगती मंजिल

सबसे अहम प्रश्न निज-पहचान नहीं हो रही, कैसे खुद से सवाल हों, पा ना रहा राह।

 

क्या-कैसे-क्यों सोचूँ, इसकी सोच न मुझमें, और न ही गुरु बना पा रहा किसी को

शायद सर्वोत्तम, जब खुद को मित्र बन पाओ, पर बेहतर जब अंतः में उतर जाओ।

क्या पास वर्तमान में, क्या सत्य निज परिचय ही, खुद से कैसे-कितने प्रश्न हैं संभव ?

प्रश्न सार्थक हों, पर उत्तर ढूँढ़ने का भी यत्न, पहचान हेतु खुद का मुखड़ा तो देखो।

 

शील विचारो, अन्य कहें इससे पूर्वेव त्रुटि-सुधार का विचार, यथाशीघ्र हो परिष्कार

पूर्णता ओर बढ़ना, किंतु उसका दायरा क्या, क्षितिज-बुलंदियाँ, मंजिलें व चाहें क्या?

क्या यह निज विस्तृततर न बन सकता, व ब्रह्माण्ड का अकाट्य अंश न सकता बन

निश्चित तो पूर्व से किंतु प्रश्न अनुभूति का, तब सब नभ-तारों को भी कह सकता निज।

 

इस समस्त जग-प्रक्रिया में मेरी क्या भूमिका है, बिना रोल जाने ही क्या सिर्फ नाचूँगा

क्या आचरण उचित, कौन निर्देशक, क्या सुधार वाँछित हैं, या चलते-२ गिर जाऊँगा।

सर्वत्र महामानव-झुंड हैं, अत्यधिक नित्य-निर्मित, मैं अनाड़ी ठीक से न पाता भी चल

क्या संभव मैं भी सर्वत्र नवीनतम रहूँ, विशाल न तो कुछ लघु ही सकारात्मक दूँ रच।

 

जीवन को कदापि क्षुद्र नहीं समझना, माना कुछ या सब आयामों में हो भी सकते अवर

किंतु कोटि उच्च न क्यों निर्धारित करते, क्या किसी ने मना किया बड़ा करने हेतु कुछ।

क्यों न पथ में जी-जान से जुट जाते, मातृ-भूमि व प्राणीमात्र की सेवार्थ पूर्णतया समर्पित

आत्म संग सबका ही सफलीकरण -यत्न, सब हृदयाकाशों में जला देते कर्त्तव्य-दीपक।

 

कभी अपने को हीन-दीन-पराधीन मत समझना, उठो व पूर्ण जीवन-अहसास का करो

जीवन को एक पूर्ण चेतना-स्पंदन संग ही जीओ, छोटी-क्षुद्र बातों से अत्युच्च उठ जाओ।

सबको आत्म के अनुरूप समझो, अपना बना लो, अच्छा-बुरा पहचानना भी सीख लो पर

दुर्जनों को बदलने का उपाय स्वयं को सज्जन बनाना है, पुण्यता ही जग में फैलेगी फिर।

 

कुछ महात्माओं को अंतरंग मित्र बनाओ, व उन्नति-मार्ग पर अनवरत बढ़ते चले जाओ।

 


पवन कुमार,

५ मई, २०२४, रविवार, समय ७:१७ बजे सायं   

(मेरी शिलोंग डायरी २४ जुलाई, २०००, सोमवार, समय १:०४ बजे मध्य रात्रि से)


कुछ उलझन

                                                                   कुछ उलझन

                                                                                                                                      



फिर कुछ सुस्ताने के पलों को, अपना बनाने हूँ आया 

देह सोने की कह रही, पर हिम्मत जागने की करता। 

 

मेरे मन की अभिलाषा का, गूढ़ तात्पर्य तू समझा देना 

बता क्या वो अनूठी पहली है, कुछ छोर नहीं जिसका।

फिर तड़पन तो देती है, जैसे किसी कमी को दिखाती

पर अपने को उजागर नहीं करती, यह दुविधा है बड़ी।

 

तड़पन है किंतु मर्ज अबोध, मूर्ख रोगी सा ही सुबकता  

कैसी यह विचित्र परिस्थिति, जो कुछ समझ न आ रहा।

बस जीवन की कशमकशों में, अबूझ ही भटका करता 

कभी नहीं उनका विश्लेषण-विचार, मस्तिष्क में आया।

 

बस जैसे आया, वैसे ही जी लिया, और हो गया विश्रांत 

 फिर आए-गए का क्या अर्थ हुआ, शून्य हैं सब स्थान। 

कब सुलझेंगी मन-पहेलियाँ, कभी ज्ञात हो कैसे रहा जी

कुछ बोल, खीझ- झुँझला कर, कभी मुस्कुरा कर भी।  

 

समय गँवाया, न कुछ कमाया और न रोतों का हँसाया 

न नालायक योग्य बनाए, खुद को भी न समर्थ बनाया।  

 

बस खुद में साथी बनने की, तमन्ना रखता एक कीमती 

सोचता जब स्वयं से न्याय करूँगा, तो जाएगा सबसे ही 

सब मम सम, मैं उनका व वे मेरे, न कोई भेद ही कहीं। 

 

जब खड़ा होऊँगा अपने पैरों पर, व सक्षम पैर जमाऊँगा

मानवता के प्रति सजग होकर ही, चरण आगे बढ़ाऊँगा। 

करूँगा स्थापित पहचान स्वयं की, अच्छा कमाकर कर्म 

 कुछ होगा मेरा भी कल्याण, औरों को भी है उसी के संग। 

 

 

पवन कुमार,

५ मई, २०२४, रविवार, समय १ : १३ मध्य रात्रि 

(मेरी नई दिल्ली डायरी 21 मार्च, 2011, सोमवार, समय 12.35 बजे म० रा० से)

 

Thursday 2 May 2024

शुक्रिया

शुक्रिया

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उनकी आँखें जो उठी तो मैं शुक्रगुजार हुआ
जैसे सुबह हो जाने से, जग खूब रोशन हुआ।

मैं ना जानूँ कुछ, उनसे मोहब्बत की ही बातें 
वो ही हमदर्दी से मुझपर, यूँ मेहरबान हुआ।

मेरी हैसियत क्या थी, जो होऊँ उनके काबिल
उनकी नजरें-इनायत से, कुछ काबिल हुआ। 

मेरे ज़ेहन में तो, फालतू के बहुत से ही मलाल
फिर भी मन में उन्हीं की ओर रुख़सत हुआ। 



पवन कुमार,
२ मई, २०२४,  वीरवार, समय १६:४१ बजे अपराह्न 
( मेरी नई दिल्ली डायरी मार्च, २००७ से )   


  

Wednesday 1 May 2024

विचरण - दिशाहीन

विचरण - दिशाहीन



क्या लिखना ही शुरू करूँ, कुछ भी सूझे ना, मस्तिष्क बोझिल है तो कलम चले ना।

अपनी दुनिया ढूँढ़ा करता, जैसे कस्तूरी-मालिक होकर भी हरिण दर-बदर भटकता। 
मेरी दुनिया कैसी, कोई पता नहीं, बस साँसें आने-जाने से ही क्या सब बात बन जाती?

बहुत मन-गहराई, पर छलाँग लगाए कौन, डरते जब खुद से, कष्टों को अपनाए कौन। 
सारा ढोंग किया करते कि हूँ ढूँढ़नवारा, खुद में शांति तो निज से कुछ जुड़ेगा रिश्ता।।

बड़ी मन-उद्विग्नता पर न बाहर आती, भयभीत सा हो जाता खुद से बात कहने में भी। 
कोशिश की तो कोशिश की थी पर कोशिश बेकार गई, विश्वास-संबल जोड़ा था नहीं।।

अनेक विद्वान हुऐ व कलम बन जाती सरस्वती, किंतु आत्म-विश्वास करने में डरता ही।
कब होगा रुग्ण-उन्मादों का परिष्कार कुछ, क्योंकि जीने की भी थोड़ी इच्छा है तब।। 

अपने में विचरना चाहूँ तब मार्ग दिखेगा, कृपा करो मन के नाविक, कुछ पथ दो सुझा। 
दुनियादारी-चक्कर में अधिक लिखा-पढ़ा ना, निज संग बैठकर भी तो गुनगुनाया ना।। 

कीमत तो बहुतेरी होगी पर आँका ना, कोई किस भाव मोल करे तुमको पता ही ना। 
सवाल करोगे तो उत्तर जाऐंगे मिल ही, किंतु प्रश्न करने की कला भी तो आती नहीं।। 

कब तक व्यर्थ-शब्दों से कागज काला करोगे, कुछ ठोस कर्म-प्रेरणा से निज न भरते। 
दुनिया की अदना सा नर, न जानूँ वजूद, तो भी जीतूँगा अंतः-कोने में कहीं है विश्वास।।

दृष्टि को देखने के अनुरूप कर्म करना ही, पर उस हेतु आवश्यक है उसे खुला रखना 
अपनी ज्ञानेन्द्रियाँ तो चाहूँ उपयोग करना, लेकिन कुछ ऐसा जो स्पंदन नहीं होने देता।। 

पर यूँ न अपने को विनिष्ट होने दूँगा, वजूद की बेहतरी हेतु और अधिक चमकाऊँगा।
जब कोशिशों के जरिए ही दमकूँगा, तो खुद पर मान करने के काबिल बन जाऊँगा।।

अहसान तो खुद पर करना होगा ही, वरना तो जिन्दगी यूँ ही निरर्थक निकल जाएगी। 
यह वर्तमान, वो भूत-भविष्य, सब अपना, जब भी जीवन-क्षण प्राप्त हो वरदान वहाँ।।

वह क्या चीज है जो एक समाधि-स्थिति से मिला दे, अपने को निज अहसास करा दे।
अपनी सरलता पर हँसना सिखा दे, कभी मौका मिले तो खुद पर रोना भी सिखा दे।।

मैं और मेरा आत्म दोनों अकेले हैं, देखने में लगते पास, लेकिन कोसों ही दूर शायद।
किञ्चित परस्पर का तो ज्ञान न कोई, मैं झुँझलाता सा गुनगुनाता रहता अपने में ही।। 

कब वो क्षण ही आएगा, जब मित्र बन जाऐंगे, परस्पर के अंतरंग बन एक हो जाऐंगे।
तब दूरी न होगी, कुछ चैन की साँस ले सकूँगा, मेरा भी कुछ वजूद है कह पाऊँगा।। 

सोचना तो और चाहता पर जुकाम है हुआ, मस्तिष्क भारी, ज्यादा जोर न दे पा रहा।
प्रभु तू अपना करुणा-आशीर्वाद रखना, सुलेखन-रुचि हो ऐसा पथ-प्रसस्त करना।। 

धन्यवाद। शुभ रात्रि।  


पवन कुमार,
०१ मई, २०२४ बुधवार, समय ८:५५ बजे सायं 
(मेरी डायरी २७ अक्टूबर, २००५, वीरवार, समय ११:३० बजे मध्य रात्रि से)  

Sunday 28 April 2024

अचेतनता

अचेतनता

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मस्तिष्क-शून्यता अब सही जा रही, समझ आता जीवित हूँ या मृत  

शायद इन्द्रियों में ज्ञान ही , मात्र कुछ देहस्थल-क्रियाऐं ही आभासित। 

 

इस घनघोर अँधियारी-रात्रि के निस्बधता-आलम में भी स्वानुभूति असमर्थ 

तो क्या कथन जरूरी कि जिंदा नहीं, फिर क्यों जीने का ढोंग कर रहा बस।

 

बहुत बहका दुनिया में, असर विपुल, जब चाहती तो हँसाती वरन रुलाती 

कठपुतली ज्यूँ इशारों पर चलाती, फिर कुछ निज अहमियत क्या मेरी भी।

 

इस दुनिया-पंक्ति में क्या स्व-स्थान, प्रश्न कठिन किंतु उत्तर और भी जटिल 

क्या खुद हेतु कोई पैमाना संभव, या क्या अन्य निज से मापना करेंगे पसन्द।

 

कुछ खोया-बेचैन, बेचारा, भटकता किसी मूढ़ सा, शायद खबर अपनी 

पर जग हेतु बड़ा करना सोचता, किंतु होता कुछ और, क्या वह मैं तो नहीं।

 

फिर मेरी परिभाषा ही क्या, केवल हाड़-माँस का पुतला या और भी कुछ 

या प्रकृति-प्रदत्त कुछ ज्ञानेन्द्रि-गृह बस, या आंधी द्वारा लाया झोंका सा एक।

 

या फिर केवल स्वप्न में ही जी रहा, या फिर कुछ बड़ा सोच पाने में समर्थ भी 

या अपनी कुछ जिम्मेवारी-अहसास भी है, या मात्र अपने आप में विरक्त ही।

 

अगर योगी तो आवरण फिर वैसा क्यों नहीं, सत्य कि मात्र भोगी भी तो नहीं 

पर यह भी नहीं कि इन्द्रियाँ सुनियंत्रित और केवल कोमल हृदयवासी हूँ ही।

 

फिर क्यों अपने प्रति ईमानदार ही , और क्यों निज कर्त्तव्यों का अहसास  

क्या मुझसे अपेक्षित और क्या सत्य करता ही, क्या इनमें अति अन्तर तो न।

 

क्यों नहीं ईर्ष्या विश्व-समर्थों को देखकर, क्या मैं भी दिशा जा सकता उस 

यदि कुछ वर्षो में वे बड़े मुकाम पहुँच सकते, तो तुम्हें रोकने में कौन समर्थ?

 

फिर सिद्धता स्व-परमाणवीय शक्ति-ज्ञान की, चेतनाभास करने की अंतः के

निज से प्रश्न हल ढूँढ़ने की, तब कुछ जीवंत कहलाने के पात्र हो जाओगे।

 


 पवन कुमार

२८ अप्रैल, २०२४ रविवार, समय ११ : ५ बजे पूर्वाह्न 

(मेरी शिलोंग डायरी ३१ जुलाई, २०००, समय १२:४५ मध्य रात्रि से )